दीपावली के दूसरे दिन गोवर्धन पूजा मनाने की परंपरा बहुत पुरानी और धार्मिक मान्यता से जुड़ी हुई है। कहा जाता है कि इस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रजवासियों को भारी वर्षा से बचाने के लिए गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठ उंगली पर उठा लिया था। इंद्र देव ने अपने अभिमान में आकर लगातार वर्षा की, लेकिन भगवान कृष्ण ने सबको सुरक्षित रखा। इसी कारण इस दिन लोग गोवर्धन पर्वत और गौ माता की पूजा करते हैं, ताकि जीवन में सुख, समृद्धि और प्रकृति का आशीर्वाद बना रहे।

ग्रामीण क्षेत्रों में इस दिन गोबर से गोवर्धन पर्वत की आकृति बनाकर उसकी पूजा की जाती है, जिसे “अन्नकूट उत्सव” भी कहा जाता है। इस अवसर पर तरह-तरह के पकवान बनाए जाते हैं और भगवान को भोग लगाया जाता है। यह त्योहार हमें यह सिखाता है कि प्रकृति, पशु-पक्षी और धरती माता का सम्मान करना ही सच्ची पूजा है। गोवर्धन पूजा, दीपावली के उत्सव का आध्यात्मिक विस्तार है, जो हमें भगवान श्रीकृष्ण की विनम्रता और लोककल्याण की भावना की याद दिलाता है।
गोवर्धन पूजा की पौराणिक कहानी
अगर आप बचपन में श्रीकृष्ण की कहानियाँ सुनते आए हैं, तो आपने “गोवर्धन पर्वत उठाने” वाली कथा ज़रूर सुनी होगी। दरअसल, यही कहानी गोवर्धन पूजा का मूल आधार है। एक समय की बात है। जब भगवान श्रीकृष्ण गोकुल में रहते थे। उस समय वहाँ के लोग हर साल इंद्रदेव की पूजा करते थे ताकि वर्षा अच्छी हो और फसलें लहलहाएँ। लेकिन कृष्ण ने लोगों से कहा कि असली पूजनीय इंद्र नहीं, बल्कि गोवर्धन पर्वत है क्योंकि वही हमें वर्षा के बाद उपजाऊ मिट्टी, घास और भोजन देता है।
लोगों ने श्रीकृष्ण की बात मान ली और इंद्र की पूजा छोड़कर गोवर्धन पर्वत की पूजा की। इससे इंद्र क्रोधित हो गए और उन्होंने भारी वर्षा शुरू कर दी। तब श्रीकृष्ण ने अपनी छोटी उंगली पर गोवर्धन पर्वत उठाकर सभी ग्रामीणों और पशुओं को बचाया। सात दिन बाद जब इंद्रदेव को अपनी गलती का एहसास हुआ, तो उन्होंने श्रीकृष्ण से माफी मांगी। तभी से हर साल दीपावली के अगले दिन गोवर्धन पूजा मनाई जाती है, ताकि हम प्रकृति और भगवान के इस संदेश को याद रख सकें।
दीपावली के दूसरे दिन ही गोवर्धन क्यों मनाया जाता है?
अब सवाल यही है कि गोवर्धन पूजा दीपावली के दूसरे दिन ही क्यों होती है? इसका जवाब धर्म और प्रकृति दोनों से जुड़ा है।
पहला कारण धार्मिक मान्यता से जुड़ा है।
कहा जाता है कि श्रीकृष्ण ने इंद्र का अभिमान तोड़ने के लिए गोवर्धन पूजा का आरंभ दीपावली के अगले दिन किया था। इसलिए हर साल इसी दिन को शुभ माना जाता है।
दूसरा कारण प्रकृति से जुड़ा है।
कार्तिक मास के इस समय वर्षा ऋतु समाप्त हो जाती है और फसलों की तैयारी शुरू होती है। किसान गोवर्धन पर्वत की पूजा करके प्रकृति को धन्यवाद देते हैं और आने वाली फसलों के लिए मंगलकामना करते हैं। यानी यह पर्व केवल धार्मिक ही नहीं बल्कि कृषि संस्कृति का प्रतीक भी है।
गोवर्धन पूजा कैसे मनाई जाती है?
भारत के अलग-अलग राज्यों में गोवर्धन पूजा के तरीके थोड़े अलग हैं, लेकिन भाव एक ही है. प्रकृति और भगवान श्रीकृष्ण के प्रति आभार।
सुबह-सुबह घरों की महिलाएँ गोबर से गोवर्धन पर्वत की आकृति बनाती हैं। उसके चारों ओर छोटे-छोटे जानवर, पेड़-पौधे और मनुष्य बनाए जाते हैं। फिर पूजा के समय दूध, दही, चावल, हल्दी, फूल और मिठाइयाँ चढ़ाई जाती हैं।
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गाँवों में असली गायों और बैलों की पूजा भी की जाती है। उन्हें स्नान कराकर, रंग-बिरंगी सजावट की जाती है, और स्वादिष्ट भोजन खिलाया जाता है। पूजा के बाद लोग गोवर्धन के चारों ओर घूमते हुए भजन गाते हैं और मंगलकामनाएँ करते हैं।
कई जगहों पर मंदिरों में “अन्नकूट पर्व” मनाया जाता है जहाँ सैकड़ों प्रकार के व्यंजन बनाकर भगवान श्रीकृष्ण को भोग लगाया जाता है। यही कारण है कि इस दिन को “अन्नकूट” कहा जाता है – यानी अन्न का पहाड़।
गोवर्धन पूजा का महत्व
गोवर्धन पूजा सिर्फ एक धार्मिक कर्म नहीं, बल्कि एक संदेश भी देती है। यह हमें सिखाती है कि प्रकृति ही हमारी असली देवी है, और उसका सम्मान करना हमारा कर्तव्य है।इस पूजा से हमें यह भी सीखने को मिलता है कि घमंड करने वाला व्यक्ति कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, उसे एक दिन झुकना ही पड़ता है। श्रीकृष्ण का यह कार्य विनम्रता, करुणा और साहस का प्रतीक है। कृषि समाज में इसका विशेष महत्व है क्योंकि यह त्योहार पशुधन, फसलों और मेहनतकश जीवन की अहमियत बताता है। इसलिए दीपावली के अगले दिन हर किसान अपने खेत, पशु और प्रकृति की पूजा करता है ताकि आने वाला साल खुशियों और समृद्धि से भरा रहे।
गोवर्धन पूजा से जुड़े 5 रोचक तथ्य
- गोवर्धन पर्वत आज भी मौजूद है। यह उत्तर प्रदेश के मथुरा ज़िले के पास स्थित है और हजारों श्रद्धालु हर साल यहाँ परिक्रमा करने जाते हैं।
- गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा 21 किलोमीटर लंबी है, जिसे लोग नंगे पांव पूरी श्रद्धा से करते हैं।
- इस दिन अन्नकूट महोत्सव में 56 भोग (छप्पन भोग) श्रीकृष्ण को अर्पित किए जाते हैं।
- नेपाल में भी गोवर्धन पूजा को गोधन पर्व के नाम से मनाया जाता है।
- वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह पर्व प्रकृति संरक्षण का प्रतीक है, क्योंकि इसमें मिट्टी, पेड़-पौधे और पशुओं की पूजा की जाती है।

निष्कर्ष:
गोवर्धन पूजा का असली अर्थ सिर्फ भगवान श्रीकृष्ण की आराधना तक सीमित नहीं है, बल्कि यह प्रकृति और पशुधन के प्रति आभार व्यक्त करने का पर्व भी है। इस दिन किसान अपनी गाय-भैंसों को सजाते हैं, गोबर से गोवर्धन पर्वत का प्रतीक बनाते हैं और भगवान श्रीकृष्ण का धन्यवाद करते हैं कि उन्होंने हमें अन्न, जल और पशुधन जैसी जीवनदायी संपत्तियाँ दीं। यह त्योहार हमें यह सिखाता है कि प्रकृति की रक्षा ही असली पूजा है, क्योंकि वही हमारे जीवन का आधार है।
इसके पीछे जो कहानी है, वह भी बहुत गहरी शिक्षा देती है.। जब श्रीकृष्ण ने इंद्रदेव के अहंकार को तोड़ते हुए गोवर्धन पर्वत उठाया था, तब उन्होंने लोगों को यह समझाया कि हमें अपनी धरती, पशु-पक्षी और प्रकृति की शक्ति पर विश्वास रखना चाहिए। इसलिए दीपावली के दूसरे दिन गोवर्धन पूजा मनाना न केवल धार्मिक परंपरा है, बल्कि यह पर्यावरण और सामूहिकता का उत्सव भी है, जो आज के समय में पहले से कहीं ज्यादा जरूरी हो गया है।


